नाना साहब
,
वेणुग्राम,
,
अनिश्चित
माधवनारायण भट्ट

गंगाबाई
पालक पिता-

, स्वतंत्रता सेनानी
, ,

नाना साहब ( अंग्रेज़ी : Nana Saheb , जन्म- 19 मई , 1824 , वेणुग्राम, महाराष्ट्र ; मृत्यु- 6 अक्टूबर , 1858 ) सन 1857 के भारतीय स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम के शिल्पकार थे। उनका मूल नाम 'धोंडूपंत' था। स्वतंत्रता संग्राम में नाना साहेब ने कानपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोहियों का नेतृत्व किया। पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट द्वितीय ने नाना साहब को गोद ले लिया था। इतिहास में नाना साहेब को बालाजी बाजीराव के नाम से भी संबोधित किया गया है। 1 जुलाई 1857 को जब कानपुर से अंग्रेजों ने प्रस्थान किया तो नाना साहब ने पूर्ण् स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी तथा पेशवा की उपाधि भी धारण की। नाना साहब का अदम्य साहस कभी भी कम नहीं हुआ और उन्होंने क्रांतिकारी सेनाओं का बराबर नेतृत्व किया।

  • 2 पेंशन का रुकना
  • 4 सत्ती घाट नरसंहार
  • 5 खजाने की तलाश
  • 7 टीका टिप्पणी और संदर्भ
  • 8 संबंधित लेख

नाना साहब ने 19 मई सन 1824 को वेणुग्राम निवासी माधवनारायण भट्ट के घर जन्म लिया था। इनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के सगोत्र भाई थे। पेशवा बाजीराव द्वितीय जिस समय दक्षिण छोड़कर गंगा तटस्थ बिठूर , कानपुर में रहने लगे थे, तब उनके साथ दक्षिण के पं। माधवनारायण भट्ट और उनकी पत्नी गंगाबाई भी वहीं रहने लगे थे। इसी भट्ट दम्पत्ति से एक ऐसे बालक का जन्म हुआ, जो भारत की स्वतन्त्रता के इतिहास में अपने अनुपम देशप्रेम के कारण सदैव अमर हो गया। पेशवा बाजीराव द्वितीय ने पुत्रहीन होने के कारण इसी बालक को गोद ले लिया था। कानपुर के पास गंगा तट के किनारे बिठुर (कानपुर) में ही रहते हुए, बाल्यावस्था में ही नाना साहब ने घुड़सवारी, मल्लयुद्ध और तलवार चलाने में कुशलता प्राप्त कर ली थी। अजीम उल्ला ख़ाँ नाना साहब का वेतन भोगी कर्मचारी था।

पेंशन का रुकना

पेशवा बाजीराब को मराठा साम्राज्य छोड़कर कानपूर के पास बिठूर आना पड़ा था। इस समय तक अंग्रेजों ने भारत के एक बड़े हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया था। इसी दौरान 28 जनवरी 1851 ई। को पेशवा बाजीराव की मौत हो गई। कहा जाता है कि मृत्यु तक पेशवा को 80 हजार डॉलर की पेंशन अंग्रेज़ सरकार से मिलती थी, लेकिन बाद में उसे रोक दिया गया। माना जाता है कि लॉर्ड डलहौजी ने नाना साहेब को दत्तक पुत्र होने के कारण पेंशन देने से मना कर दिया। ऐसे में नाना साहेब को इस बात से बहुत दु:ख हुआ। एक तो वैसे ही उनके मराठा साम्राज्य पर अंग्रेज अपनी हुकूमत जमा कर बैठे थे, वहीं दूसरी ओर उन्हें जीवन यापन के लिए रॉयल्टी का कुछ भी हिस्सा नहीं दिया जा रहा था। [1]

इसके बाद 1853 ई। में नाना साहेब ने अपने सचिव अजीम उल्ला ख़ाँ को पेंशन बहाली पर बात करने के लिए लंदन भेजा। अजीम उल्ला ख़ाँ हिंदी , फ़ारसी , उर्दू , फ्रेंच, जर्मन और संस्कृत का अच्छा ज्ञाता था। वह अंग्रेजों की क्रूर नीतियों का शिकार था, इसलिए नाना साहेब ने उसे अपना सचिव बना लिया था। इस दौरान अजीम उल्ला ने अंग्रेज अधिकारियों को समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन उनकी सभी दलीलें ठुकरा दी गईं। ब्रिटिश अधिकारियों के इस रवैये से नाना साहेब बेहद खफा थे। ऐसे में उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत को ही सबसे अच्छा विरोध का माध्यम माना।

उधर, मंगल पांडे के नेतृत्व में मेरठ छावनी के सिपाही अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का मन बना चुके थे। खबर उड़ती-उड़ती नाना साहेब के पास पहुंची तो इन्होंने तात्या टोपे के साथ मिलकर 1857 में ब्रिटिश राज के खिलाफ कानपुर में बगावत छेड़ दी। जब मई 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की ज्वालायें उठीं, नाना साहब भी राष्ट्र मुक्ति संघर्ष में कूद पड़े थे। उन्होंने कानपुर पर अधिकार कर लिया। कई मास इस पर आज़ादी का झण्डा लहराता रहा। कानपुर पर फिर से अधिकार करने के लिए हेवलॉक ने विशाल सेना के साथ आक्रमण किया। उन्होंने कुछ समय तक शत्रु सेना से वीरता के साथ संघर्ष किया। अन्त में उनकी पराजय हुई। नाना साहब ने अपना साहस नहीं खोया और उन्होंने कई स्थानों में शत्रु सेना से संघर्ष किया। अन्त में जब 1857 का प्रथम संग्राम असफल हुआ, तब नाना साहब को सपरिवार नेपाल की शरण लेनी पड़ी। लेकिन वहाँ शरण ना मिल सकी, क्योंकि नेपाल दरबार अंग्रेज़ों को असन्तुष्ट नहीं करना चाहता था। जुलाई सन 1857 तक इस महान् देश भक्त को घोर आपत्तियों में अपने दिन व्यतीत करने पड़े। उनका स्वराज्य स्थापना का स्वप्न टूट चुका था।

सत्ती घाट नरसंहार

नाना साहेब और ब्रिटिश सेना के बीच की इस लड़ाई ने सत्ती चोरा घाट के नरसंहार के बाद और भी गंभीर रुख अख्तियार कर लिया। दरअसल, 1857 में एक समय पर नाना साहेब ने ब्रिटिश अधिकारियों के साथ समझौता कर लिया था, मगर जब कानपुर का कमांडिंग ऑफिसर जनरल विहलर अपने साथी सैनिकों व उनके परिवारों समेत नदी के रास्ते कानपुर आ रहे थे, तो नाना साहेब के सैनिकों ने उन पर हमला कर दिया। इस घटना के बाद ब्रिटिश पूरी तरह से नाना साहेब के खिलाफ हो गए और उन्होंने नाना साहेब के गढ़ माने जाने वाले बिठूर पर हमला बोल दिया। हमले के दौरान नाना साहेब जैसे-तैसे अपनी जान बचाने में सफल रहे। लेकिन यहां से भागने के बाद उनके साथ क्या हुआ यह बड़ा सवाल है। इसे लेकर कुछ इतिहासकार कहते हैं कि वह भागने में सफल हो गए थे और अंग्रेजी सेना से बचने के लिए भारत छोड़कर नेपाल चले गए।

खजाने की तलाश

हालांकि रहस्य केवल नाना साहेब के गायब होने का नहीं है। बात उनके बेशकीमती खजाने की भी है। जिस समय अंग्रेजों ने नाना साहेब के महल पर हमला किया, तो उनके हाथ नाना साहेब तो नहीं लगे, लेकिन दौलत के भूखे अंग्रेजों ने उनके महल को कुरेदना शुरू कर दिया।अंग्रेज वहां किसी गुप्त खजाने की तलाश में थे। इसके लिए खासतौर पर रॉयल इंजीनियरों व लगभग आधी ब्रिटिश सेना को काम पर लगा दिया गया। खजाने की खोज के लिए अंग्रेजों ने कुछ भारतीय जासूसों की भी मदद ली। जिसके चलते वह खजाना ढूंढ पाने में लगभग सफल हो ही गए। महल में खोज के दौरान अंग्रेजों को सात गहरे कुंए मिले। जिनमें तलाशने पर उन्हें सोने की प्लेट मिली। इससे यह पक्का हो गया कि नाना साहेब का खजाना इन्हीं कुओं में कहीं छिपाया गया है। [1]

इस दौरान सारा पानी निकाल कर जब कुंए की तलाशी ली गई, तो कुएं के तल में बड़े-बड़े बक्से दिखे, जिसमें सोने की कई प्लेटें, चांदी के सिक्के व अन्य बेशकीमती सामान रखा हुआ था। इतना बड़ा खजाना अंग्रेजों के हाथ लग चुका था, बावजूद इसके उनका मानना था कि नाना साहेब खजाने का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने साथ ले गए हैं।

नाना साहब की मृत्यु को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं। माना जाता है कि नेपाल के देवखारी गांव में रहते हुए नाना साहेब भयंकर बुख़ार से पीड़ित हो गए और इसी के परिणामस्वरूप मात्र 34 साल की उम्र में 6 अक्टूबर , 1858 को इनकी मौत हो गई। कुछ विद्वानों एवं शोधार्थियों के अनुसार क्रान्तिकारी नाना साहब के जीवन का पटाक्षेप नेपाल में न होकर गुजरात के ऐतिहासिक स्थल सिहोर में हुआ।

सिहोर के गोमतेश्वर स्थित गुफा, ब्रह्मकुण्ड की समाधि, नाना साहब के पौत्र केशवलाल के घर में सुरक्षित नागपुर , दिल्ली , पूना और नेपाल आदि से आये नाना को सम्बोधित पत्र, तथा भवानी तलवार, नाना साहब की पोथी, पूजा करने के ग्रन्थ और मूर्ति, पत्र तथा स्वाक्षरी; नाना साहब की मृत्यु तक उनकी सेवा करने वाली जड़ीबेन के घर से प्राप्त ग्रन्थ, छत्रपति पादुका और स्वयं जड़ीबेन द्वारा न्यायालय में दिये गये बयान इस तथ्य को सिद्ध करते है कि सिहोर, गुजरात के स्वामी दयानन्द योगेन्द्र नाना साहब ही थे, जिन्होंने क्रान्ति की कोई संभावना न होने पर 1865 को सिहोर में सन्न्यास ले लिया था। मूलशंकर भट्ट और मेहता जी के घरों से प्राप्त पोथियों से उपलब्ध तथ्यों के अनुसार, बीमारी के बाद नाना साहब का निधन मूलशंकर भट्ट के निवास पर भाद्रमास की अमावस्या को हुआ।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • ↑ 1.0 1.1 1857 की क्रांति के हीरो की मौत का रहस्य! (हिंदी) roar.media। अभिगमन तिथि: 24 सितंबर, 2020।

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  • प्रारम्भिक अवस्था
  • स्वतन्त्रता सेनानी
  • स्वतन्त्रता संग्राम 1857
  • जीवनी साहित्य
  • मराठा साम्राज्य
  • औपनिवेशिक काल
  • प्रसिद्ध व्यक्तित्व
  • प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश
  • सूचना बक्सा ऐतिहासिक पात्र

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नाना साहेब का जीवन परिचय | Nana Saheb Biography in Hindi

नाना साहेब (अंग्रेजीः Nana Saheb) ऐसे इंसान थे जिनका नाम मराठों में छत्रपति शिवाजी महाराज व संभाजी महाराज के बाद पूरे भारत में गूंजता है। ऐसे वीर पुरुष की जीवनी आज हम आपके लिए लेकर आए हैं।

नानासाहेब स्वतंत्रता संग्राम के एक महान संचारक थे। वे बिठूर के पेशवा थे जिनके कारण अंग्रेजों को कई बार हार का सामना करना पड़ा। नाना साहेब का अदम्य साहस उनकी वीरता और शौर्य का प्रतीक था। 

Table of Contents

नाना साहेब का परिचय (Introduction to Nana Saheb)

पूरा नामनाना साहेब (Nana Saheb)
जन्म का नामधोंडू पंत
जन्म दिनांक19 मई 1824
जन्म स्थानवेणुग्राम, कानपुर (उत्तर प्रदेश, भारत)
पितामाधवनारायण भट्ट
मातागंगाबाई
पालक पितापेशवा बाजीराव द्वितीय
पुत्रराव साहेब
उपाधिपेशवा
प्रसिद्धिस्वतंत्रता सेनानी
धर्महिंदू
राष्ट्रीयताभारतीय
साथी  और अजीमुल्लाह खान
मृत्यु दिनांक 6 अक्टूबर 1858
मृत्यु स्थान देवखारी गांव, नेपाल ( यह तथ्य विरोधाभासी है)
मृत्यु का कारणतीव्र बुखार
जीवन काल34  वर्ष

नाना साहेब का जन्म 19 मई 1824 को वेणुग्राम (कानपुर) में हुआ था। इनके पिता का नाम माधव नारायण भट्ट और माता का नाम गंगाबाई था। पिता माधव नारायण भट्ट पेशवा बाजीराव द्वितीय के सगे भाई थे। 

बाजीराव द्वितीय पुणे से कानपुर आ गए थे और इनके साथ माधव नारायण भट्ट और गंगाबाई भी आ गई। अब वे बिठूर में ही रहने लगे। माधव नारायण भट्ट और गंगाबाई को एक पुत्र की प्राप्ति हुई। इस पुत्र का नाम ‘धोंडूपंत’ रखा गया था।

परंतु किसको पता था कि यह बच्चा वीर योद्धा के रूप में इतिहास में अपना नाम जगमगाएगा। उन्हें बचपन में नाना राव भी कहा जाने लगा। इधर पेशवा बाजीराव द्वितीय नि:संतान थे तो उन्होंने इस बच्चे को गोद ले लिया। पेशवा ने उनकी पढ़ाई-लिखाई करवाई और हाथी घोड़े की सवारी, तलवार, बंदूक चलाना सिखाया।

वह बचपन में तात्या टोपे   के साथ खेला करते। बिठूर में रानी लक्ष्मीबाई भी रहा करती थी। रानी लक्ष्मीबाई तात्या टोपे और नाना साहेब को अपना गुरु मानती थी। इसके अलावा उन्होंने कई भाषाओं का ज्ञान भी नाना साहेब को दिलवाया।

पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु और पेंशन का रुकना (Death of Peshwa Bajirao II and )

28 जनवरी 1851 को पेशवा बाजीराव द्वितीय का स्वर्गवास हो गया। पेशवा के जाने के बाद जब बिठूर के उत्तराधिकारी का प्रश्न उठा तो अंग्रेज सरकार ने नानासाहेब को एक पत्र भेजा। 

इस पत्र में कहा गया कि ब्रिटिश सरकार नाना साहेब (Nana Saheb) को पेशवा धन संपत्ति का उत्तराधिकारी तो मानती है ना कि उपाधि और राज सुविधाओं का।

ऐसे में पेशवा की गद्दी प्राप्त करने के संबंध में कोई कार्यक्रम या प्रदर्शन न किया जाए। परंतु नाना साहिब में अदम्य साहस था। उन्होंने पेशवा के शस्त्रागार पर अपना अधिकार जमा लिया। इसके बाद उन्होंने पेशवा की उपाधि ग्रहण कर ली।

नाना साहेब की पेंशन का रुकना ( Stay of Pension of Nana Saheb)

उस जमाने में ब्रिटिश सरकार हर पेशवा को 80,000 डॉलर सालाना पेंशन दिया करती थी। परंतु बाजीराव द्वितीय के जाने के बाद वह पेंशन बंद कर दी गई। नाना ने अपने आपको पेशवा घोषित कर दिया था तो वे पेंशन को पुनः चालू करवाना चाहते थे।

यहां तक कि उन्होंने अंग्रेजों को एक पत्र लिखा और कहा कि पेशवा की पेंशन शुरू की जाए। उन्होंने इस संबंध में कानपुर के कलेक्टर को भी सूचना दी लेकिन उनकी यह मांग उचित नहीं मानी गई।

इससे नाना साहेब (Nana Saheb) को बहुत ठेस पहुंची क्योंकि उन्हें उनके आश्रितों का पालन पोषण करना था। नाना साहेब ने पेंशन के लिए लॉर्ड डलहौजी को भी इसके बारे में सूचना दी परंतु उसने भी इंकार कर दिया। क्योंकि अंग्रेज यह है मानते थे कि गोद लिया हुआ पुत्र किसी भी सिंहासन का उत्तराधिकारी नहीं बन सकता था।

  अब नाना साहेब ने अजीमुल्ला खान को अपना वकील नियुक्त किया और रानी विक्टोरिया के पास ब्रिटेन भेजा। अजीमुल्ला खान भी इस मामले में असफल रहे और आते वक्त उन्होंने फ्रांस, इटली और रूस की यात्रा की और उनके बारे में जाना। वापस आने के बाद अजीमुल्ला खान ने नाना को इन सब के बारे में बताया

1857 की क्रांति में नाना साहेब ( Nana Saheb in the Revolution of 1857)

नाना साहेब ने 1857 में काल्पी, दिल्ली और लखनऊ की यात्रा पर गए। उनकी यात्रा कुछ रहस्य से भरी लगती है। अंग्रेजों के द्वारा किया गया रुखा व्यवहार उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं आया था जब वह काल्पी में थे तो वे बिहार के कुंवर सिंह से मिले और क्रांति की कल्पना की।

इधर मेरठ में क्रांति की शुरुआत हो चुकी थी तो नाना अपनी सेना से कभी छुपकर तो कभी प्रत्यक्ष वार किया करते। उनकी सेना ने अंग्रेज खजाने से 8,50,000 रुपये और युद्ध का सामान लूट लिया था।नाना साहेब (Nana Saheb) और तात्या टोपे ने मिलकर कानपुर में विद्रोह किया। इस बगावत में नाना ने कानपुर पर अधिकार कर लिया।

अब कानपुर पर आजादी का झंडा फहरा रहा था। अंग्रेज हैवलॉक कानपुर को वापस पाने के लिए एक विशाल सेना के साथ कानपुर पर आक्रमण कर दिया।

 1 जुलाई 1857 को नाना ने पेशवा की उपाधि धारण की और स्वतंत्रता का परचम लहराया। नाना क्रांतिकारियों का नेतृत्व कर रहे थे। फतेहपुर तथा अन्य स्थानों पर नाना के क्रांतिकारियों और अंग्रेजों के बीच भीषण युद्ध हो रहे थे। इन युद्धों में कई बार क्रांतिकारी जीते तो कई बार अंग्रेज। 

अंग्रेज बढ़ते आ रहे थे तो नाना ऐसी स्थिति में लखनऊ की तरफ चले गए। उसके बाद फिर वे लखनऊ से कानपुर वापस आ गए। अंग्रेजों को कभी यह महसूस नहीं हुआ था कि नाना उनका सहयोग कर रहे थे या विद्रोह। 

कानपुर में क्रांति के बाद अंग्रेज समझ चुके थे कि नाना उनके विद्रोही हैं। इसके एवज में अंग्रेजों ने उनको पकड़ने के लिए एक बहुत बड़ा इनाम रखा। इससे नाना के अदम्य साहस और उनके चालाक व्यक्तित्व का पता चलता है।

सत्ती घाट पर नरसंहार ( Massacre at Satti Ghat )

कानपुर को अंग्रेजों ने वापस ले लिया और नाना के साथ समझौता कर लिया। 1857 में कानपुर का कमांडिंग ऑफिसर जनरल व्हीलर अपने सैनिकों और परिवार के साथ कानपुर आ रहा था। उस दौरान नाना साहेब (Nana Saheb)और उनके साथी सैनिकों ने इस अंग्रेज दल पर आक्रमण कर दिया। इस घटना में महिलाओं और बच्चों का भी कत्ल कर दिया गया।

 कुछ अंग्रेज इतिहासकार यह मानते हैं कि नाना साहेब ने समझौता करने के बाद नि:शस्त्र सेना पर आक्रमण किया जो कि गलत था।इस घटना के बाद अंग्रेज पूरी तरह से क्रोधित हो गए और उन्होंने बिठूर पर आक्रमण कर दिया। इस हमले से नाना साहेब बच निकले और बिठूर छोड़ दिया। इसके बाद वे कहां गए इसके बारे में कई मत हैं।

 कुछ इतिहासकार यह मानते हैं कि नाना कानपुर छोड़कर नेपाल चले गए ताकि वे अंग्रेजों से बच सकें।

अंग्रेजों ने खजाने की तलाश में पूरे महल को खोद डाला (Digged Well in the Search of Treasure of Nana Saheb )

हालांकि नाना साहेब (Nana Saheb) अंग्रेजों के हाथ नहीं लग सके परंतु अंग्रेजों ने नाना के महल को खजाने की तलाश में खोदना शुरू कर दिया। अंग्रेजों ने आधी सेना को किले की खुदाई में लगा दी। इस खोज में उन्होंने कई जासूसों की मदद भी ली। इसके बाद वे खजाना ढूंढने में सफल हो गए। 

अंग्रेजों को खोज के दौरान साथ 7 गहरे कुएं मिले जिनको खोदने पर उन्हें सोने की प्लेट मिली। अब यह निश्चित हो चुका था कि खजाना यहीं इन्हीं कुओं में छिपाया गया है। तो उन्होंने कुओं का पानी बाहर निकाल कर उनको गहरा खोदना शुरू कर दिया।

कुओं के तल में उन्हें बड़े बड़े बक्से दिखाई दिए जिसमें सोने की प्लेट, सिक्के और बेशकीमती सामान रखा गया था। अंग्रेजी ने वो सारा खजाना लूट लिया और यह माना कि नाना साहब ने बहुत बड़ा खजाने का भाग अपने साथ लेकर भाग गए हैं।

नाना साहेब की मृत्यु (Death Of Nana Saheb)

ऐसा माना जाता है कि नाना साहेब (Nana Saheb) कानपुर छोड़ कर नेपाल चले गए थे। वहां पर वे तीव्र बुखार से पीड़ित हो गए।

 6 अक्टूबर 1858 को तीव्र बुखार के कारण मात्र 34 वर्ष की उम्र में नेपाल के ‘देवखारी’ गांव में  नाना साहेब का देहांत हो गया।

 वहीं कुछ इतिहासकार यह मानते हैं कि अपने आखिरी दिनों में नाना साहेब गुजरात में थे। वहां वे ‘सिहोर’ में अपना नाम बदलकर रह रहे थे। उन्होंने अपना नाम स्वामी दयानंद योगेंद्र रख लिया था और बीमारी की वजह से उनका देहांत हो गया।

 नाना साहेब की मौत आज भी एक रहस्य बनी हुई है। उनकी मृत्यु के बारे में कोई ठोस सबूत नहीं मिले हैं। परंतु नाना साहेब ने जो नाम बनाया था वह नाम बहुत प्रसिद्ध है जो आज भी इतिहास के पन्नों पर गूंजता है।

उत्तर- रानी लक्ष्मीबाई नानासाहेब (Nana Saheb) को अपना गुरु मानती थी क्योंकि उन्होंने जो युद्ध नीति सीखी थी वह नानासाहेब और तात्या टोपे से सीखी थी। साथ ही रानी लक्ष्मीबाई नानासाहेब को अपना बड़ा भाई भी मानती थी क्योंकि वह बिठूर में ही पले बढ़े और उन्हीं के साथ रहे थे।

उत्तर- नाना साहेब की मृत्यु के समय आयु मात्र 34 वर्ष थी। क्योंकि उनका जन्म 19 मई 1824 को और मृत्यु 6 अक्टूबर 1858 में हुई थी। नाना साहेब की मृत्यु कैसे हुई इसके बारे में कोई पक्का प्रमाण नहीं है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि उनकी मृत्यु नेपाल में हुई थी।

उत्तर- ऐसा माना जाता है कि नाना साहेब की मृत्यु नेपाल के गांव ‘देवखारी’ में तीव्र बुखार के कारण 6 अक्टूबर 1818 को हुई थी। वहीं कुछ इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि उनकी मृत्यु गुजरात के ‘सिहोर’ में हुई थी।

उत्तर- नाना साहेब (Nana Saheb) बिठूर के पेशवा थे जो 1857 की क्रांति के अग्रणी क्रांतिकारियों में से एक थे। उन्होंने अंग्रेजों से भारत को आजाद कराने का सपना लिया था। इनके पूर्वज मराठा थे तो उनके खून में वीरता और शौर्य के लक्षण दिखते थे।उन्हें बचपन से ही तलवार घोड़े इत्यादि का शौक था और वह बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे।

उत्तर- नाना साहेब की मृत्यु 6 अक्टूबर 1858 को नेपाल के ‘देवखारी’ गांव में तीव्र बुखार के कारण हो गई। उनकी मृत्यु के बारे में पक्का प्रमाण नहीं है क्योंकि कुछ इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि उनकी मृत्यु गुजरात में हुई थी।

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1 thought on “नाना साहेब का जीवन परिचय | nana saheb biography in hindi”.

बहुत ही सुंन्दर और विस्तार से लिखा गया है। जिसे पढ़ कर बहुत आनंद आया।

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essay on nana sahib in hindi

नाना साहेब का इतिहास || History Of Nana Saheb

Last updated on July 1st, 2024 at 09:10 am

नाना साहेब महान स्वतंत्रता सेनानी और प्रभावशाली मराठा शासक थे. स्वतंत्रता सेनानी नाना साहब 1857 की क्रांति में अपने अभूतपूर्व योगदान की बदौलत विश्व विख्यात हैं. नाना साहब को नाना धुंधुपंत के नाम से भी जाना जाता हैं.

महान मराठा छत्रपति शिवाजी महाराज और संभाजी महाराज के बाद नाना साहेब का नाम संपूर्ण भारतवर्ष में गूंजता है. नाना साहेब को एक महान स्वतंत्रता संचारक के रूप में याद किया जाता है. अंत में नाना साहब को भारत छोड़कर नेपाल में शरण लेनी पड़ी थी.

पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट द्वितीय का कोई वारिस नहीं था इसलिए उन्होंने नाना साहब को गोद ले लिया और बिठूर का पेशवा नियुक्त किया. नाना साहेब का इतिहास हमारे लिए प्रेरणीय हैं. नाना साहेब के जीवन परिचय को पढ़कर हम अपने जीवन में सकारात्मक परिणाम प्राप्त कर सकते हैं.

नाना साहेब का इतिहास और जीवन परिचय

पूरा नामनाना साहेब (Nana Saheb).
अन्य नामधोंडूपंत और बालाजी बाजीराव.
जन्म तिथि19 मई 1824.
जन्म स्थानवेणुग्राम, महाराष्ट्र.
मृत्यु तिथि6 अक्टूबर 1858.
मृत्यु स्थानसीरोह, गुजरात
पिता का नाममाधवनारायण भट्ट.
माता का नामगंगाबाई.
नाना साहब की पुत्रीबाया बाई.
नाना साहब का पुत्रशमशेर बहादुर.
नाना साहब के भाईरघुनाथ राव और जनार्दन.
राष्ट्रीयताभारतीय.
परदादा और परदादी और .
प्रसिद्धि की वजहस्वतंत्रता सेनानी और पेशवा.

19 मई सन 1824 को वेणुग्राम नामक गांव में महान स्वतंत्रता सेनानी और भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम के शिल्पकार नाना साहब का जन्म हुआ था. नाना साहब के पिता का नाम माधवनारायण भट्ट था जो पेशवा बाजीराव द्वितीय के गोत्र भाई थे. इनकी माता का नाम गंगाबाई एवं नाना साहब की पुत्री का नाम बाया बाई था.

इनके जन्म के समय भारत में अंग्रेजों ने पैर पसारना शुरू कर दिया था. अंग्रेजों का मुख्य उद्देश्य व्यापार को बढ़ाने के साथ-साथ भारत के अधिकतर क्षेत्र पर अपना आधिपत्य स्थापित करना था ताकि मनमाने तरीके से व्यापार किया जा सके.

यह वह समय था जब पेशवा बाजीराव द्वितीय कानपुर ( बिठूर ) में रहने लगे. पेशवा बाजीराव द्वितीय के साथ-साथ माधवनारायण भट्ट और उनकी पत्नी गंगाबाई भी कानपुर चले गए जहां पर उन्होंने महान स्वतंत्रता सेनानी नाना साहब (Nana Saheb) को जन्म दिया. नाना साहब के पिता माधव नारायण भट्ट पेशवा के सानिध्य में काम करते थे. Nana Saheb के काम से पेशवा बहुत अधिक प्रभावित भी थे, जब पेशवा के कोई संतान नहीं हुई तो उन्होंने नाना साहब को गोद ले लिया.

कानपुर में रहते हुए गंगा किनारे नाना साहेब (Nana Saheb) ने युद्ध की बारीकियां सीखी जिसमें घुड़सवारी, मल्लयुद्ध और तलवार चलाने की कला मुख्य थी. इस समय किसी को नहीं पता था कि नाना साहब के रूप में एक ऐसा स्वतंत्रता सेनानी तैयार हो रहा था जो आने वाले समय में भारतीय इतिहास में देश प्रेम के लिए हमेशा के लिए अमर हो जाएंगे.

पेशवा परिवार के साथ पले बढ़े नानासाहेब में बचपन से ही देश प्रेम कूट कूट कर भरा था. 1857 के सिपाही विद्रोह कराने में गुप्त रूप से भाग लेने वाले अजीम उल्लाह खान इनके वेतन भोगी कर्मचारी थे. अपने अदम्य साहस के लिए विश्व विख्यात नाना साहब को जब पता चला कि 1 जुलाई 1857 को अंग्रेजों ने कानपुर छोड़ दिया, तब उन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए पेशवा की उपाधि धारण की. नाना साहब हमेशा क्रांतिकारी सेनाओं का नेतृत्व करते रहे.

नाना साहब की अंग्रजों के खिलाफ़ बगावत

अधिकतर मराठा साम्राज्य पर अंग्रेजी हुकूमत का अधिकार हो गया. ऐसे में पेशवा बाजीराव द्वितीय को अंग्रेजों की तरफ से ₹800000 सालाना पेंशन मिलती थी, जिससे उनका खर्चा चलता. यह राशि उन्हें रॉयल्टी के रूप में प्राप्त होती थी. जब 28 जनवरी 1851 में बाजीराव पेशवा द्वितीय की मृत्यु हो गई तब अंग्रेजों ने नाना साहब को उनका उत्तराधिकारी मानने से मना कर दिया.

इसके पीछे अंग्रेजों ने तर्क दिया कि नाना साहब दत्तक पुत्र है अतः उन्हें उत्तराधिकारी नहीं माना जा सकता. यह कहकर उन्होंने मिलने वाली पेंशन को बंद कर दिया. इस बात से नाना साहब को गहरी ठेस लगी. सन 1853 में नाना साहब ने अपने यहां वेतन भोगी कर्मचारी एवं अंग्रेजी, संस्कृत, फारसी, उर्दू, फ्रेंच और हिंदी भाषा के अच्छे जानकार अजीम उल्लाह खान को पेंशन पुनः शुरू करवाने के लिए और इस सम्बंध में अंग्रेज अफसरों से बातचीत करने के लिए लंदन भेजा.

नाना साहब की दलील लेकर जब अजीम उल्लाह खान लंदन पहुंचे और अंग्रेजी अफसरों से बातचीत की तो उन्होंने उनकी मांगे मानने से मना कर दिया. नाना साहब के सचिव अजीम उल्लाह खान बैरंग लौट आए. अंग्रेजों के इस रवैया से नाना साहेब को बहुत ठेस पहुंची और उन्होंने अंग्रेजो के खिलाफ बगावत को चुना. इस घटना के बाद नाना साहब कभी नहीं रुके, लगातार अंग्रेजो के खिलाफ लड़ते रहे और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों का भी साथ दिया ताकि अंग्रेजों को समूल भारत से उखाड़ फेंका जा सके.

1857 का स्वतंत्रता संग्राम और नाना साहब

अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का मन बनाए बैठे नाना साहब को जब यह बात पता लगी कि मेरठ छावनी के सिपाहियों ने महान स्वतंत्रता सेनानी मंगल पांडे के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की आग लगा दी है, तो वह बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने भी कानपुर में अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह का रास्ता अपनाया.

स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे के साथ मिलकर नाना साहब ने सन 1857 में स्वतंत्रता का बिगुल बजा दिया. कानपुर में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जगह-जगह प्रदर्शन होने लगे जिनका नेतृत्व नाना साहब और तात्या टोपे मिलकर कर रहे थे.

जब नाना साहब खुलकर राष्ट्र मुक्ति संघर्ष में कूद पड़े तब एक बड़ा जनसमूह उनके साथ खड़ा हो गया और नाना साहब के नेतृत्व में ही अंग्रेजों को कानपुर छोड़कर जाना पड़ा. नानासाहेब ने पुनः कानपुर को अपने कब्जे में लेते हुए स्वतंत्रता का झंडा फहरा दिया जो आगामी कई महीनों तक लहराता रहा.

अंग्रेजी हुकूमत भी कहां चुप रहने वाली थी उन्होंने हैवलॉक के नेतृत्व में एक विशाल सेना के साथ कानपुर पर आक्रमण कर दिया. इस आक्रमण का जवाब स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा बड़ी ही वीरता के साथ दिया गया. कई समय तक चले इस खूनी संघर्ष में अंग्रेजों की जीत हुई और उन्होंने कानपुर को पुनः अपने कब्जे में ले लिया.

भारत में कई जगह ऐसे देशद्रोही लोग भी मौजूद थे जिन्होंने खुलेआम अंग्रेजों का साथ दिया. एक साथ संपूर्ण देश में 1857 की क्रांति की लहर नहीं फैल सकी और कुछ लोगों द्वारा अंग्रेजों का साथ दिए जाने की वजह से 1857 का स्वतंत्रता संग्राम असफल हुआ. जब 1857 का स्वतंत्रता संग्राम असफल हो गया तब नाना साहब को अपने परिवार के साथ भारत छोड़कर नेपाल में शरण लेनी पड़ी. कई इतिहासकारों का यह मानना है कि नेपाल में नानासाहेब को शरण नहीं दी गई. लेकिन यह सत्य नहीं है.

सत्ती घाट नरसंहार घटना क्या थी?

दरअसल हुआ यह कि सन 1857 में नानासाहेब और अंग्रेज अधिकारियों के बीच समझौता हो गया था. लेकिन जब कानपुर के कमांडिंग अधिकारी जनरल व्हीलर सैन्य शक्ति के साथ कानपुर आ रहे थे, तब नाना साहब ने उन पर आक्रमण कर दिया और उनकी सेना को तहस-नहस कर दिया. इस लड़ाई में कई अंग्रेज सिपाही मौत के घाट उतार दिए गए.

इस घटना ने अंग्रेजी हुकूमत को झकझोर कर दिया. अब ब्रिटिश हुकूमत पूर्ण रूप से नाना साहब के खिलाफ हो चुकी थी, उन्हें किसी भी कीमत पर नाना साहब को पकड़ना था और उन्हें सजा देनी थी.

पूरे दमखम के साथ नाना साहब के मुख्य ठिकाने बिठूर पर अंग्रेजों ने हमला कर दिया. इस हमले में नाना साहब बच निकले और ऐसा कहा जाता है कि इसी हमले के बाद नाना साहब भारत छोड़कर नेपाल चले गए थे.

नाना साहब का खजाना और अंग्रेजों की लूट

मराठा साम्राज्य के पेशवा होने के कारण अंग्रेज यह भली-भांति जानते थे कि नाना साहब के पास अपार धन संपदा होगी. लेकिन जब नाना साहब कानपुर छोड़कर नेपाल चले गए तो अंग्रेजों के पास यह सुनहरा मौका था कि उनके महल में उनके छिपे हुए खजाने को ढूंढा जाए.

अंग्रेजों ने एक बड़ी सेना को नाना साहब के महल में खजाने की खोज में लगा दिया. सेना ने ना सिर्फ पूरे महल को तहस-नहस कर दिया बल्कि उस खजाने को भी खोज निकाला जिसमें कई सोने की प्लेटें और सोने की ईंटें निकली. इतना बड़ा खजाना प्राप्त कर लेने के बाद भी अंग्रेजों को यह संदेह था कि इसका बहुत बड़ा हिस्सा नाना साहब अपने साथ लेकर चले गए हैं.

यह सिर्फ नाना साहब के साथ नहीं हुआ. संपूर्ण भारत में कई ऐसे राजाओं के साथ अंग्रेजों द्वारा इस तरह की लूट की गई अन्यथा सोने की चिड़िया कहलाने वाला भारत आसानी से निर्धन नहीं होता. हालांकि आज भी भारत संपूर्ण दुनिया का पेट भरने का माद्दा रखता है.

नाना साहब की मृत्यु कैसे हुई?

नाना साहब की मृत्यु कैसे हुई इस सवाल का जवाब अभी भी इतिहासकार सटीक रूप से नहीं दे पाए हैं. नेपाल चले जाने के बाद नाना साहब वहां पर देवखारी नामक गांव में रहने लगे. इस दौरान तेज बुखार ने उन्हें चपेट में ले लिया. बहुत उपचार करने के बाद भी बुखार ठीक नहीं हुआ और महज 34 वर्ष की आयु में महान स्वतंत्रता सेनानी और 1857 की क्रांति का बिगुल बजाने वाले नाना साहेब ने 6 अक्टूबर 1858 को प्राण त्याग दिए.

दूसरी तरफ इतिहासकारों का एकदम का यह मानता है कि नाना साहब की मृत्यु गुजरात के सिरोह में हुई थी. इस संबंध में कई साक्ष्य भी उपलब्ध है जिनमें नाना साहेब के पुत्र केशव लाल द्वारा सुरक्षित रखे गए नागपुर, पुणे, दिल्ली और नेपाल से आए पत्र, नाना साहब की पोथी, उनकी पूजा के ग्रंथ और मूर्तियां, नाना साहब की मृत्यु के वक्त उनकी सेवा में लगी जड़ी बहन के घर से प्राप्त ग्रंथ, छत्रपति पादुका, जड़ीबेन द्वारा न्यायालय में दिए गए बयान यह साबित करते हैं कि सीरोह, गुजरात के स्वामी दयानंद योगेंद्र ही नाना साहब (Nana Saheb) थे.

मेहता जी और मूल शंकर भट्ट के घरों से प्राप्त पोथियों के अनुसार बीमारी के बाद नानासाहेब की मृत्यु मूल शंकर भट्ट के निवास पर भाद्रपद मास की अमावस्या को हुआ था. प्राप्त ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर इस बात पर विश्वास किया जा सकता है. नाना साहेब मृत्यु के समय 34 वर्ष की आयु थी.

नाना साहब के बारे में 10 लाइन

नाना साहब के बारे में 10 लाइन निम्नलिखित है –

[1] नाना साहब एक बहुत बड़े क्रांतिकारी थे जिन्होंने स्वतंत्रता में बहुत बड़ा योगदान दिया था.

[2] नाना साहब को 1857 की क्रांति अर्थात प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के शिल्पकार के रूप में जाना जाता है.

[3] नाना साहब का जन्म 19 मई 1824 को हुआ था.

[4] नाना साहब का जन्म महाराष्ट्र के बिठूर जिले के वेणुग्राम नामक गांव में हुआ था.

[5] Nana Saheb के पिता का नाम माधव नारायण भट्ट और माता का नाम गंगाबाई था.

[6] नाना साहब के दो भाई थे एक का नाम रघुनाथ राव और दूसरे का नाम जनार्दन था.

[7] नाना साहब के पुत्र का नाम शमशेर बहादुर था.

[8] नाना साहब ने लगभग 20 वर्षों तक अंग्रेजों के साथ संघर्ष किया.

[9] नाना साहब (Nana Saheb) बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे.

[10] नाना साहब की मृत्यु 6 अक्टूबर 1858 को तेज बुखार की वजह से हुई थी.

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नाना साहेब का जीवन परिचय Nana Sahib Biography in Hindi

Nana sahib biography in hindi-.

झांसी की रानी लक्ष्मी बाई और तात्या टोपे के साथ नाना साहेब को  1857 की क्रांति  के प्रमुख योद्धाओं के रूप में जाना जाता है| नाना साहिब ने 1857 के विद्रोह में क्रांति की एक नयी मशाल जलायी| उन्होंने ब्रिटिश से मुकाबला करने के लिए स्वयं तलवार उठायी और अन्य लोगों के लिए प्रेरणा के स्रोत बने|

Short Biography of Nana Sahib in Hindi-

नाम नाना साहेब
जन्म तिथि 19 मई 1824
जन्म स्थान बिठूर (कानपुर)
उपाधि पेशवा
पिता का नाम नारायण भट्ट
माता का नाम गंगा बाई
किसने गोद लिया 1827 में बाजी राव द्वितीय ने नाना साहिब को गोद लिया था।

Nana Sahib Biography and History in Hindi-

नाना साहिब का जन्म जून 1824 में महाराष्ट्र के वेणु में हुआ था। उनके बचपन का नाम ‘धोंदु पंत’ था| उनके पिता का नाम माधव नारायण भट्ट और माता का नाम गंगा बाई था| उन्हें पेशवा बाजीराव द्वितीय ने 1827 में अपने बेटे के रूप में गोद लिया था। नाना साहेब की शिक्षा का उचित प्रबंध किया गया था और इसके साथ ही साथ उन्हें सैन्य शिक्षा भी दी गयी थी|

नाना साहिब को घुड़सवारी का भी ज्ञान था और वह एक कुशल तलवार बाज थे|  रानी लक्ष्मी बाई  और तात्या टोपे उनके बचपन के दोस्त थे। नाना साहेब बहुत बहादुर और प्रतिभाशाली थे।

जब 1851 में नाना साहिब पेशवा बजी राव के उत्तराधिकारी तब ब्रटिश सरकार ने उन्हें उनकी पेंसन देने से इंकार कर दिया| इस बात से नाना साहिब ने ब्रिटिश सरकार को अपना दुश्मन बनाया और उनके साथ हर प्रकार के युद्ध करने के लिए तत्पर हो गए| उन्होंने बड़ी ही बहादुरी और कौशल से ब्रिटिश सेना का सामना किया था|

उनकी बहादुरी का गुणगान कई विदेशी लेखकों ने अपनी पुस्तकों में किया है| नाना साहब (Nana Sahib) ने हमेशा हिन्दू और मुसलामानों को एक साथ मिलकर चलने का प्रयत्न किया था और वह हर  धर्म  के लोगों को एक साथ रखकर एकता कायम करना चाहते थे|

1857 का विद्रोह और नाना साहेब-

कानपुर एक महत्वपूर्ण स्थान था जहां ग्रांड ट्रंक रोड और झांसी से लखनऊ को जोड़ने वाला रास्ता एक दुसरे से मिलते थे| जब ब्रिटिश सरकार ने उनकी वार्षिक पेंशन को रोक दिया तब उन्होंने अदालत में अपनी मांग रखनी चाही परन्तु नाना साहेब की अपील स्वीकार नहीं की गई थी।

इस घटना ने उन्हें ब्रिटिश शासकों का परम शत्रु बना दिया। 1857 में कानपुर में एक भयंकर लड़ाई के हुई इस युद्ध के बाद जनरल सर ह्यूग व्हीलर (General Sir Hugh Wheeler) ने 27 जून, 1857 को आत्मसमर्पण कर दिया।

नाना साहिब ने किसी भी निर्दोष व्यक्ति और अंग्रेजी महिलाओं तथा बच्चों को सुरक्षित रहने का सम्पूर्ण प्रयास किया, और उन्हें इलाहाबाद में सुरक्षित रखने का आश्वासन दिया गया था। हालांकि इलाहाबाद में जनरल जेम्स ओ’नील ने भारतीयों के ऊपर अमानवीय अत्याचार करना प्रारम्भ कर दिया| जिससे बनारस और इलाहबाद के लोग बदले की भावना से भर गए|

उन लोगों ने ब्रिटिश पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की हत्या करके अपना प्रतिशोध लिया| कानपुर में भीषण नरसंहार हुआ जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए|

कानपुर में हुई इन घटनाओं के बाद नाना साहेब ने खुद को पेशवा घोषित कर दिया। तात्या टोपे, ज्वाला प्रसाद और अजीमुल्लाह खान नाना साहिब के सबसे वफादार साथी थे, और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ बड़ी ही वीरता से नाना साहेब का साथ दिया था|

जून 1857 में अंग्रेजों ने नाना साहिब को हरा दिया और फिर नवंबर 1857 में नाना साहिब और तात्या टोपे ने कानपुर को फिर से हासिल कर लिया था| लेकिन वे लंबे समय तक इसे अपने अधिकार में नहीं रख सके, क्योंकि जनरल कैंपबेल ने 6 दिसंबर 1857 को फिर से कानपुर पर हमला करके उसे जीत लिया|

नाना साहिब इसके बाद नेपाल चले गए और तात्या टोपे वहां से बच निकलकर झांसी की रानी के साथ शामिल हो गए।

यह भी जाने-  भारत के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी

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नाना साहेब की जीवनी – Nana Saheb Biography Hindi

आज इस आर्टिकल में हम आपको नाना साहेब की जीवनी – Nana Saheb Biography Hindi के बारे में बताने जा रहे हैं.

नाना साहेब की जीवनी – Nana Saheb Biography Hindi

भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम के शिल्पकार माने जाने वाले नाना साहेब का मूल नाम धोंडूपंत था.

उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना महत्वपूर्ण योगदान अदा किया था.

नाना साहेब का जन्म 19 मई 1824 में बिठूर में हुआ.

उनके पिता का नाम माधव नारायण राव था और उनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के भाई थे.

उनकी माता का नाम गंगाबाई था. लेकिन बाजीराव ने नाना साहेब1827 ई. में गोद लिया

शिक्षा – नाना साहेब की जीवनी

पेशवा के द्वारा ही उनकी शिक्षा और दीक्षा पूर्ण हुई.

उनके द्वारा उन्हें हाथी घोड़ों पर सवारी करना, तलवार और बंदूक चलाना और कई भाषाओं का ज्ञान करवाया था.

नाना साहेब प्रभावशाली शासकों में एक थे. उन्हें बालाजी बाजीराव भी कहा जाता है.

नानासाहेब को पेशवा की उपाधि से भी सम्मानित किया गया था.

1857 में कनवपुर के घेराबंदी करके नाना साहेब के नेतृत्व में भारतीय सेना के आगे अंग्रेजों कोआत्मसमर्पण कर करने पर मजबूर कर दिया.इसके अलावा 27 जून 1857 में महिलाओं और बच्चों सहित करीब 300 से अधिक ब्रिटिश को सतीचौरा घाट पर मौत के घाट उतार दिया गया.

अंग्रेजों द्वारा पेशवा पद समाप्त किए जाने से असंतुष्ट नाना साहिब ने सन 1857 के विद्रोहियों का कानपुर में नेतृत्व किया था।

नाना साहेब की मृत्यु के बारे में कोई भी जानकारी नहीं मिल पाई है, 1859 के बाद में वह गायब हो गए थे और उनके बाद उनके अस्तित्व के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली.

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अदम्य साहस के प्रतीक नाना साहेब की रहस्यमयी मौत से नहीं उठा पर्दा, 1857 में अंग्रेजों पर कहर बनकर टूटे थे

nana saheb

मराठा शासकों में छत्रपति शिवाजी महाराज के बाद सबसे ज्यादा प्रभावी शासकों में नाना साहेब का नाम लिया जाता है। शिवाजी महाराज ने जहां मुगलों की गुलामी अस्वीकार की थी वहीं नाना साहेब को अंग्रेजों हस्तक्षेप पसंद नहीं था और उन्होंने उनके खिलाफ मोर्चा तैयार किया था।

1857 में हुए प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ब्रिटिश हुकूमत के विरूद्ध एक सशक्त विद्रोह था। यह विद्रोह 2 सालों तक हिंदुस्तान के अलग-अलग इलाकों में चला। जहां पर अनेक शूरवीरों ने भारत मां की रक्षा में अपने प्राणों की आहूति दे दी। इसी बीच एक पेशवा ने मराठा दुर्ग से दूर कानपुर से क्रांति का बिगुल बजाया था और ब्रिटिश हुकूमत तक की ईंट से ईंट बजा दी थी। लेकिन आज भी इतिहासकार उनकी मौत को लेकर स्पष्ट रुख अख्तियार नहीं कर पाए हैं। नाना साहेब पेशवा की मौत किसी रहस्य से कम नहीं है।

इसे भी पढ़ें: चेतक के साथ मिलकर महाराणा प्रताप ने अकबर से लिया था लोहा, जानें हल्दीघाटी के युद्ध के बारे में

मराठा शासकों में छत्रपति शिवाजी महाराज के बाद सबसे ज्यादा प्रभावी शासकों में नाना साहेब का नाम लिया जाता है। शिवाजी महाराज ने जहां मुगलों की गुलामी अस्वीकार की थी वहीं नाना साहेब को अंग्रेजों हस्तक्षेप पसंद नहीं था और उन्होंने उनके खिलाफ मोर्चा तैयार किया था। नाना साहेब पेशवा वंश के थे और उनका शासन महाराष्ट्र के बाहर रहा। 

सच्चाई से नहीं उठ पाया पर्दा

1857 की क्रांति में नाना साहेब की अगुवाई में कानपुर, अवध, दिल्ली जैसे इलाकों में क्रांति को सही मार्ग मिला। नाना साहेब के योद्धाओं ने अंग्रेजों के खिलाफ जमकर युद्ध लड़ा और उन्हें कानपुर से खदेड़ दिया। लेकिन अंग्रेज पीठ में चाकू घोपे जाने के लिए जाने जाते थे और उनको यह हार स्वीकार भी कैसे होती। ऐसे में अंग्रेजों ने दुगनी ताकत के साथ पलटवार किया। दोनों के बीच कई महीनों तक युद्ध चला और अंतत: अंग्रेजी सैनिकों ने बिठूर पर कब्जा कर लिया।

अंग्रेजों ने पेशवा के महल को जमीदोज कर दिया। हालांकि उनकी मौत का रहस्य आज तक नहीं सुलझ पाया है। इतिहासकारों के बीच में उनकी मौत को लेकर द्वंद्व है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि नाना साहेब को मार दिया गया था। जबकि कुछ इतिहासकारों का मानना है कि वो रहस्यमयी अंदाज में गायब हो गए थे लेकिन सच्चाई क्या है यह आज तक स्पष्ट नहीं हो पाई है। 

कौन हैं नाना साहेब ?

नाना साहेब का नाम बड़े ही आदर और सतकार के साथ लिया जाता है। उनका साम्राज्य महाराष्ट्र के बाहर ही रहा और वो पेशवा वंश के थे। उनका जन्म 1824 में वेणुग्राम में माधव नारायण राव के घर पर हुआ था। हालांकि 1827 में पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट द्वितीय ने उन्हें गोद ले लिया था।

इसे भी पढ़ें: अजेय योद्धा थे बाजीराव पेशवा प्रथम, जानें इस महान महायोद्धा के बारे में

नाना साहेब के दो भाई थे- रघुनाथराव और जनार्दन। रघुनाथराव ने अंग्रेजों से हाथ मिला लिया था और मराठा भाईयों को धोखा दिया। जबकि जनार्दन की अल्पायु में ही मृत्यु हो गई थी। पेशवा बाजीराव के यहां रहते हुए नाना साहेब ने घुड़सवारी, युद्ध कौशल के गुर सीखे। जिसका उन्हें आगे चलकर काफी लाभ भी मिला। यह वो दौर था जब अंग्रेजों ने हिंदुस्तान के बड़े हिस्से में अपना कब्जा जमा लिया था। इसी बीच 1851 में पेशवा बाजीराव का स्वर्गवास हो गया। 

पेशवा बाजीराव की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने नाना साहेब को पेंशन देना बंद कर दिया था। उस वक्त लॉर्ड डलहौजी ने उन्हें दत्तक पुत्र बताते हुए पेंशन देने से इनकार किया था। कहा जाता है कि पेशवा बाजीराव की मृत्यु होने तक अंग्रेजों से 80 हजार डॉलर की पेंशन मिलती थी। ऐसे में नाना साहेब ने अपने सिपेसिलार को पेंशन बहाली की बात करने के लिए लंदन भेजा था। इसके बावजूद अंग्रेजों ने पेंशन बहाली नहीं थी। जिससे नाना साहेब सबसे ज्यादा आह्त हुए थे।

देखते ही देखते वक्त गुजरा और नाना साहेब को खबर मिली की मंगल पांडे के नेतृत्व में मेरठ छावनी के योद्धाओं ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की शुरुआत की है। ऐसे में नाना साहेब ने भी कानपुर में बिगुल फूंक दिया और तात्या टोपे के साथ मिलकर अंग्रेजों की ऐसी दुर्दशा की जो वो कभी नहीं भूल पाए।

- अनुराग गुप्ता

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नाना साहेब के दो भाई थे, क्रमशः रघुनाथराव और जनार्दन। रघुनाथराव ने अंग्रेज़ों से हाथ मिलकर मराठाओं को धोखा दिया, जबकि जनार्दन की अल्पायु में ही मृत्यु हो गयी थी। नाना साहेब ने 20 वर्ष तक मराठा साम्राज्य पर शासन किया (1740 से 1761)।

मराठा साम्राज्य के एक शासक होने के नाते, नाना साहेब ने पुणे शहर के विकास के लिए भारी योगदान दिया। उनके शासनकाल के दौरान, उन्होंने पूना को पूर्णतयः एक गांव से एक शहर में बदल दिया था। उन्होंने शहर में नए इलाकों, मंदिरों, और पुलों की स्थापना करके शहर को एक नया रूप दे दिया। उन्होंने कटराज शहर में एक जलाशय की स्थापना भी की थी। नाना साहेब एक बहुत ही महत्वाकांक्षी शासक और एक बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति थे।

1741 में,उनके चाचा चिमणजी का निधन हो गया जिसके फलस्वरूप उन्हें उत्तरी जिलों से लौटना पड़ा और उन्होंने पुणे के नागरिक प्रशासन में सुधार करने के लिए अगला एक साल बिताया। डेक्कन में, 1741 से 1745 तक की अवधि को अमन और शांति की अवधि माना जाता था। इस दौरान उन्होंने कृषि को प्रोत्साहित किया, ग्रामीणों को सुरक्षा दी और राज्य में काफी सुधार किया।

1 जुलाई 1857 को जब कानपुर से अंग्रेजों ने प्रस्थान किया तो नाना साहब ने पूर्ण् स्वतंत्रता की घोषणा की तथा पेशवा की उपाधि भी धारण की। नाना साहब का अदम्य साहस कभी भी कम नहीं हुआ और उन्होंने क्रांतिकारी सेनाओं का बराबर नेतृत्व किया। फतेहपुर तथा आंग आदि के स्थानों में नाना के दल से और अंग्रेजों में भीषण युद्ध हुए। कभी क्रांतिकारी जीते तो कभी अंग्रेज। तथापि अंग्रेज बढ़ते आ रहे थे। इसके अनंतर नाना साहब ने अंग्रेजों सेनाओं को बढ़ते देख नाना साहब ने गंगा नदी पार की और लखनऊ को प्रस्थान किया। नाना साहब एक बार फिर कानपूर लौटे और वहाँ आकर उन्होंने अंग्रेजी सेना ने कानपुर व लखनऊ के बीच के मार्ग को अपने अधिकार में कर लिया तो नाना साहब अवध छोड़कर रुहेलखंड की ओर चले गए। रुहेलखंड पहुँचकर उन्होंने खान बहादुर खान् को अपना सहयोग दिया। अब तक अंग्रेजों ने यह समझ लिया था कि जब तक नाना साहब पकड़े नहीं जाते, विप्लव नहीं दबाया जा सकता। जब बरेली में भी क्रांतिकारियों की हार हुई तब नाना साहब ने महाराणा प्रताप की भाँति अनेक कष्ट सहे परंतु उन्होंने फिरंगियों और उनके मित्रों के संमुख आत्मसमर्पण नहीं। अंग्रेज सरकार ने नाना साहब को पकड़वाने के निमित्त बड़े बड़े इनाम घोषित किए किंतु वे निष्फल रहे। सचमुच नाना साहब का त्याग एवं स्वातंत्र्य, उनकी वीरता और सैनिक योग्यता उन्हें भारतीय इतिहास के एक प्रमुख व्यक्ति के आसन पर बिठा देती है।

लॉर्ड डलहौज़ी ने पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु के बाद नाना साहब को 8 लाख की पेन्शन से वंचित कर, उन्हें अंग्रेज़ी राज्य का शत्रु बना दिया था। नाना साहब ने इस अन्याय की फरियाद को देशभक्त अजीम उल्लाह ख़ाँ के माध्यम से इंग्लैण्ड की सरकार तक पहुँचाया था, लेकिन प्रयास निस्फल रहा। अब दोनों ही अंग्रेज़ी राज्य के विरोधी हो गये और भारत से अंग्रेज़ी राज्य को उखाड़ फेंकने के प्रयास में लग गये। 1857 में भारत के विदेशी राज्य के उन्मूलनार्थ, जो स्वतंत्रता संग्राम का विस्फोट हुआ था, उसमें नाना साहब का विशेष उल्लेखनीय योगदान रहा था।

कुछ विद्वानों एवं शोधार्थियों के अनुसार, महान् क्रान्तिकारी नाना साहब के जीवन का पटाक्षेप नेपाल में होकर, गुजरात के ऐतिहासिक स्थल 'सिहोर' में हुआ। सिहोर में स्थित 'गोमतेश्वर' स्थित गुफा, ब्रह्मकुण्ड की समाधि, नाना साहब के पौत्र केशवलाल के घर में सुरक्षित नागपुर, दिल्ली, पूना और नेपाल आदि से आये नाना को सम्बोधित पत्र, तथा भवानी तलवार, नाना साहब की पोथी, पूजा करने के ग्रन्थ और मूर्ति, पत्र तथा स्वाक्षरी; नाना साहब की मृत्यु तक उनकी सेवा करने वाली जड़ीबेन के घर से प्राप्त ग्रन्थ, छत्रपति पादुका और स्वयं जड़ीबेन द्वारा न्यायालय में दिये गये बयान इस तथ्य को सिद्ध करते है कि, सिहोर, गुजरात के स्वामी 'दयानन्द योगेन्द्र' नाना साहब ही थे, जिन्होंने क्रान्ति की कोई संभावना होने पर 1865 को सिहोर में सन्न्यास ले लिया था। मूलशंकर भट्ट और मेहता जी के घरों से प्राप्त पोथियों से उपलब्ध तथ्यों के अनुसार, बीमारी के बाद नाना साहब का निधन मूलशंकर भट्ट के निवास पर भाद्रमास की अमावस्या को हुआ।

1857 के स्वाधीनता संग्राम की योजना बनाने वाले, समाज को संगठित करने वाले,अंग्रेजी सरकार के भारतीय सौनिकों में स्वाधीनता संग्राम में योगदान देने के लिए तैयार करने वाले प्रमुख नेता थे नाना साहब पेशवा।

उनमें प्रखर राष्ठ्रभक्ति थी, असीम पौरूष था, तथा सम्पर्क साधन करने का इतना कौशल्य तथा वाणी की इतनी मधुरता थी कि अंग्रेज सत्ताधारी लोग उनकी योजना की जानकारी अपने गुप्तचरों के द्वारा भी लम्बे समय तक जान सके। यह कार्य इतनी कुशलता के किया गया कि लम्बे समय तक अंग्रेज लोग उन्हें अपना सहयोग हितकारी मानते रहे।

नाना साहब पेशाव का जन्म, महाराष्ट्र के अन्दर माथेशन घाटी में वेणु नामक एक छोटे से ग्राम में हुआ था। यह गाँव इस समय अहमदनगर जिले के कर्जत नामक तहसील में हैं। इनका जन्म 16 मई 1825 को रात्रि के आठ नौ बजे के मध्य में हुआ था। कुछ लोगों का मत है कि इनका जनम 1824 में हुआ था। उनके पिता का नाम माधवराव नारायण भट्ट था। माँ का नाम गंगाबाई था। बचपन में नाना साहब का नाम गोविन्द घोंड़ोपन्त था। बचपन में ही इन्होंने तलवार भाला चलाना शीघ्र ही सीख लिया था। दूर-दूर तक वे स्वयं घुड़सवारी भी करते थे। उनका परिवार अत्यन्त साधारण था परन्तु उनके पिता श्रद्धेय बाजीराव पेशाव के संगोत्रीय थे। सन 1816 में यह परिवार बाजीराव पेशवा के साथ ब्रह्मावर्त गया था।



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10 Lines on Nana Saheb in Hindi | नाना साहब पर 10 लाइन

10 Lines on Nana Saheb in Hindi | नाना साहब पर 10 लाइन 

नाना साहब 1857 के भारतीय स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम में एक प्रमुख व्यक्ति थे। 

नाना साहब का जन्म मई 1824 में उत्तर प्रदेश के बिठूर (जिला कानपुर) में हुआ था।

नाना साहब का असली नाम नाना गोविंद धोंडूपन्त था।

वह मराठा पेशवा बाजी राव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे।

उनके पिता, नारायण भट, एक सुशिक्षित दक्कनी ब्राह्मण थे।

उनकी माता का नाम गंगा बाई था।

उन्होंने 1857 के भारतीय विद्रोह में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

उनके बचपन के दोस्त  तात्या टोपे   और  रानी लक्ष्मीबाई  थे।

अंग्रेजों द्वारा मराठा साम्राज्य पर कब्जा करने के बाद नाना साहब को उनकी सही विरासत से वंचित कर दिया गया था।

इसने अंग्रेजों के लिए उनकी नफरत को हवा दी और उन्होंने उनके खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया।

ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ उनकी लड़ाई के लिए उन्हें भारतीयों द्वारा नायक माना जाता है।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में नाना साहब ने कानपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध नेतृत्व किया था।

उनकी मौत कब, कैसे और कहां हुई, इसका पता नहीं चल पाया है।

नाना साहेब की कहानी भारतीय इतिहास और आजादी के संघर्ष का अहम हिस्सा बनी हुई है।

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Nana Sahib (born c. 1820—died c. 1859?, Nepal?) was a prominent leader in the Indian Mutiny of 1857–58. Although he did not plan the outbreak, he assumed leadership of the sepoys (British-employed Indian soldiers).

Adopted in 1827 by Baji Rao II, the last Maratha peshwa (ruler), Nana Sahib was educated as a Hindu nobleman. On the death of the exiled Baji Rao in 1852, he inherited the peshwa ’s home in Bithur (now in Uttar Pradesh state). Although Nana Sahib’s adoptive father had pleaded that his £80,000-a-year life pension be extended to Nana Sahib, the British governor-general of India , Lord Dalhousie , refused. Nana Sahib sent an agent, Azimullah Khan, to London to push his claims, but without success. On his return Azimullah told Nana Sahib he was unimpressed by the supposed British military strength in the Crimean War .

That report, the refusal of his claim, and threats of the sepoys led him to join the sepoy battalions at Kanpur in rebellion in June 1857. He had sent Sir Hugh Wheeler, commander of British forces at Kanpur, a letter warning of the attack—a sardonic gesture to his former friends. A safe conduct given to the British under General Wheeler by Nana Sahib was broken on June 27, and British women and children were massacred at Nana Sahib’s palace. Lacking military knowledge, he could not command the mutinous sepoys, though he had the satisfaction of being declared peshwa in July 1857 by the rebel leader Tantia Tope and his followers after the capture of Gwalior . Defeated by General Henry Havelock and in December 1857 by Sir Colin Campbell (later Baron Clyde ), he appointed a nephew, Rao Sahib, to give orders to Tantia. In 1859 Nana Sahib was driven into the Nepal hills, where he is thought to have died.

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Nana Sahib Great Freedom Fighter Essay

Nana Sahib was born on May 19, 1824 as Nana Govind Dhondu Pant to Narayan Bhatt and Ganga Bai. When Baji Rao II (the last Peshwa of the Maratha Confederation) defeated in the Third Maratha War and the East India Company had exiled him to Bithoor near Kanpur, where he maintained a large establishment paid for in part out of a British pension. In childhood, he had friends named Tantya Tope, Azimullah Khan and Rani Lakshmibai. He played a significant role in the Indian freedom fight.

According to Doctrine of Lapse treaty, after the death of Baji Rao, Nana Sahib was refused to take the throne as he was not the direct heir to Baji Rao. Nana Sahib stood against this statement of the British Government and started an attack on their collocation at Kanpur. He was defeated by General Henry Havelock and in December 1857 by Sir Colin Campbell. He appointed a nephew, Rao Sahib, to give orders to Tantia.

He was a Maratha soldier and led the Kanpur rebellion during the battle of 1857. He had in himself inbuilt leadership qualities which led to the breakout. The best thing about him was that he was the connate, sensible, agile and strong decision maker. He never had to plan any move or any trick in advance. It is said that after his defeat in the rebellion of Kanpur, Nana Sahib took shelter in Nepal to protect himself and his family. He was seen by people in the Nepal hills, where he is thought to have died.

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essay on nana sahib in hindi

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NCERT Notes: Nana Saheb [Modern Indian History For UPSC]

NCERT notes on important topics for the UPSC Civil Services Exam . These notes will also be useful for other competitive exams like banking PO, SSC, state civil services exams and so on. This article talks about the contributions of the freedom fighter – Nana Saheb .

Candidates can also download the notes PDF from the link given below.

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Nana Saheb (UPSC Notes):- Download PDF Here

Nana Saheb - UPSC 2021 Preparation

Nana Saheb/Sahib played a pivotal role in the Indian Revolt of 1857. He led the uprising at Kanpur (Cawnpore). Further details about his role his elaborated below.

Nana Saheb (1824 – 1859)

  • Born in Bithoor (Kanpur District), Uttar Pradesh in May 1824.
  • His birth name was Nana Govind Dhondu Pant.
  • His father travelled from the Western Ghats to the court of the Peshwa Baji Rao II in Pune to become a court official.
  • He and his brother were adopted by the Peshwa who was childless in 1827. Nana Saheb’s mother was the Peshwa’s sister-in-law.
  • His childhood friends were Tatya Tope and Manikarnika Tambe (later Rani Laxmibai of Jhansi).
  • Peshwa Baji Rao II had been living in an estate in Bithoor after the Third Anglo-Maratha War. He was given an annual pension by the British.
  • As per the Doctrine of Lapse established by Lord Dalhousie, any Indian State under the control of the British or any vassal of the British without its ruler having an heir would be annexed by the British.
  • After the Peshwa died, the British stopped giving pension to his adopted son Nana Saheb and refused to accept him as the heir (since he was adopted).
  • Despite being stated as the heir in the will of Baji Rao II, the British refused to accept Nana Saheb’s rightful claim to be the next Peshwa.
  • This ‘insult’ from the British led him to take part in the Revolt of 1857 .
  • In June 1857, Nana Saheb and the sepoys he led attacked the British entrenchment at Kanpur and captured it.
  • In July 1857, the British were successful in recapturing Kanpur by defeating Nana Saheb’s forces.
  • From Kanpur, Nana Saheb escaped to Bithoor.
  • The British took possession of his palace in Bithoor but could not get hold of Nana himself.
  • In 1858, Nana’s associates Rani Laxmibai and Tatya Tope proclaimed him as the Peshwa at Gwalior.
  • By 1859, he was believed to have escaped to Nepal. It is not known how, when or where he died.

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Frequently Asked Questions on Nana Saheb

Q 1. what was nana saheb’s role in the revolt of 1857, q 2. why was nana saheb denied the claim of peshwa by the britishers.

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Parsh Ka Gyan

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Biography of Nana Saheb in Hindi

नाना साहेब | Biography of Nana Saheb in Hindi

Table of Contents

Biography of Nana Saheb in Hindi | नाना साहेब की जीवनी

भारतीय इतिहास, औपनिवेशिक उत्पीड़न के खिलाफ वीरता, प्रतिरोध और क्रांति की कहानियों से सजा हुआ है। इन उल्लेखनीय शख्सियतों में Nana Saheb या Nana Sahib भी शामिल हैं, जो भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के एक वीर व्यक्ति थे, जो 1857 में भड़का था और देश में ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी थी। नाना साहेब, जिन्हें धोंडू पंत (Dhondu Pant) के नाम से भी जाना जाता है, अदम्य भावना और दृढ़ संकल्प के प्रतीक हैं, जिन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ एक यादगार विद्रोह का नेतृत्व किया। यह लेख Nana Saheb के जीवन, विद्रोह में उनकी भूमिका और भारतीय इतिहास में उनकी स्थायी विरासत की पड़ताल करता है।

प्रारंभिक जीवन और पृष्ठभूमि

Nana Saheb का जन्म 19 May 1824 में बिठूर, कानपुर (Kanpur) में हुआ था, जिसे उस समय Cawnpore के नाम से जाना जाता था। वह प्रतिष्ठित पेशवा वंश से थे और मराठा संघ के अंतिम पेशवा शासक बाजी राव द्वितीय के दत्तक (adopted) पुत्र थे। तीसरे Anglo-Maratha War (1817-1818) में मराठों की हार के बाद, बाजी राव द्वितीय को बिठूर में निर्वासित कर दिया गया, जहाँ Nana Saheb उनकी देखरेख में बड़े हुए।  

Nana Saheb का पालन-पोषण पारंपरिक मराठा संस्कृति के मिश्रण और अंग्रेजों के माध्यम से यूरोपीय विचारों और रीति-रिवाजों के संपर्क से प्रभावित था। इस अद्वितीय समामेलन ने उनके विश्वदृष्टिकोण को आकार दिया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ उनके प्रतिरोध को बढ़ावा दिया।

चर्बी वाले कारतूस की घटना

वर्ष 1857 भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था जब भारतीय सैनिकों, या सिपाहियों के बीच उभरता असंतोष अपने चरम पर पहुंच गया। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने एनफील्ड राइफल (Enfield rifle) पेश की, जो जानवरों की चर्बी, मुख्य रूप से गायों और सूअरों की चर्बी वाले कारतूसों के साथ आती थी। राइफल में लोड करने के लिए सिपाहियों को कारतूस काटने पड़ते थे, इस कृत्य से हिंदू और मुस्लिम दोनों बहुत आहत हुए।

चर्बी वाले कारतूस की घटना ने सिपाहियों के बीच व्यापक विद्रोह को जन्म दिया, जिसके कारण 1857 का भारतीय विद्रोह हुआ, जिसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में भी जाना जाता है।

“ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ इस सिपाही विद्रोह का मुख्य चेहरा बने मंगल पांडे (Mangal Pandey) ”

Nana Saheb की संलिप्तता

Nana Saheb ने कानपुर में भड़के विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके परिवार के साथ दुर्व्यवहार करने और मराठा क्षेत्रों पर कब्जा करने के लिए अंग्रेजों के प्रति उनकी गहरी नाराजगी थी।

जब जून 1857 में कानपुर में विद्रोह हुआ, तो Nana Saheb एक करिश्माई और प्रभावशाली नेता के रूप में उभरे, जिन्होंने भारतीय सैनिकों और नागरिकों को ब्रिटिश उत्पीड़कों के खिलाफ हथियार उठाने के लिए एकजुट किया। उन्होंने कानपुर में ब्रिटिश चौकी पर हमले का नेतृत्व किया और खुद को पेशवा घोषित करते हुए तेजी से शहर पर नियंत्रण हासिल कर लिया।

इस अवधि के दौरान Nana Saheb के प्रशासन में निष्पक्षता और न्याय की भावना थी, जिससे उन्हें स्थानीय आबादी का समर्थन प्राप्त हुआ। उन्होंने भारतीय शासकों का एक गठबंधन बनाने और ब्रिटिश शासन से मुक्त एक स्वतंत्र भारतीय राज्य की स्थापना करने की मांग की। हालाँकि, भारतीय प्रतिरोध की खंडित प्रकृति और अंग्रेजों की भारी सैन्य शक्ति के कारण यह दृष्टिकोण पूरी तरह से साकार नहीं हो सका।

कानपुर (Cawnpore) की घेराबंदी

1857 विद्रोह के बाद कानपुर (Cawanpur) में Nana Saheb की सेना ने घेराबंदी कर ली थी, इसके बाद समझौते से ऐसा निर्णय लिया गया, की ब्रिटिशर्स और उनके परिवार सत्ती चौरा घाट (Satti Chaura Ghat), कानपुर, से नाव में 27 June 1857 को निकल जाएंगे और नाना साहेब ने अपनी सेना को किसी को हानि न पहुंचाने का आदेश दिया था।

जैसे ही ब्रिटिशर्स अपने परिवारों के साथ सत्ती चौरा घाट पर नावों में बैठने लगे वैसे ही खबर आयी की ब्रिटिश सेना के कमांडर ने बनारस में बेगुनाह भारतीय लोगों को मार दिया है, और इस बात से क्रोधित Nana Saheb के सैनिको ने नावों में बैठे अंग्रेज़ों पर गोलियों से हमला कर दिया। जो ब्रिटिशर्स गोलियों से बच गए वे तलवार की धार से मारे गए। पुरुष महिलाएं और बच्चे सहित लगभग 300 ब्रिटिश पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की हत्या कर दी गई, जिसे बाद में नरसंहार घाट (Massacre Ghat) के रूप में पहचाना गया।  

जो लोग उस दिन बच गए, वे बाद में बीबीघर नरसंहार (Bibighar Massacre) में मारे गए। माना जाता है कि विद्रोह का नेतृत्व पेशवा Nana Saheb ने किया था, इसीलिए स्वतंत्रता मिलने के बाद बीबीघर को नाना राव पार्क (Nana Rao Park) के नाम से नामांकित किया गया।

कानपुर की घटना ने नाना साहेब की प्रतिष्ठा को धूमिल कर दिया और उन्हें अंग्रेजों द्वारा एक क्रूर और प्रतिशोधी नेता के रूप में चित्रित किया गया। हालाँकि, कुछ इतिहासकारों का तर्क है कि Nana Saheb की संलिप्तता की पूरी सीमा स्पष्ट नहीं है और हो सकता है कि वह नरसंहार के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार न हों।

Nana Saheb का भाग्य

जैसे ही विद्रोह को ब्रिटिश सेना की ताकत का सामना करना पड़ा, Nana Saheb की किस्मत में गिरावट आई। कानपुर के नरसंहार के बाद, वह बिठूर, कानपुर से पीछे हट गये और प्रतिरोध प्रयासों का नेतृत्व करना जारी रखा। हालाँकि, अंततः ब्रिटिश सेना के दावे अनुसार उन्हें पकड़ लिया गया परन्तु 1859 में नाना साहेब ऐतिहासिक अभिलेखों से गायब हो गए। कुछ खातों से पता चलता है कि वह नेपाल या अन्य रियासतों में भाग गए, जबकि अन्य का दावा है कि विद्रोह के दौरान या उसके बाद उनकी मृत्यु हो गई।  

अपने भाग्य को लेकर अनिश्चितता के बावजूद, Nana Saheb ने भारतीय इतिहास पर एक अमिट छाप छोड़ी। विद्रोह के दौरान उनके साहस और नेतृत्व ने उन्हें औपनिवेशिक उत्पीड़न के खिलाफ अवज्ञा के प्रतीक के रूप में अमर बना दिया है।

विरासत और प्रभाव

Nana Saheb की विरासत लाखों भारतीयों के दिलों में जीवित है, जो उन्हें एक बहादुर स्वतंत्रता सेनानी के रूप में याद करते हैं। स्वतंत्रता के बाद के भारत में, उन्हें अक्सर एक ऐसे नायक के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की ताकत को चुनौती देने का साहस किया। कई किताबें, कविताएँ और गीत उनकी स्मृति को समर्पित किए गए हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी उनके समर्पण को कायम रखते हैं।

1857 का भारतीय विद्रोह, जिसमें Nana Saheb ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर अमिट प्रभाव छोड़ा। हालाँकि विद्रोह को अंततः दबा दिया गया, इसने बाद के आंदोलनों के लिए उत्प्रेरक के रूप में काम किया जिसके कारण अंततः 1947 में भारत को आज़ादी मिली।

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के साहसी नेता Nana Saheb इतिहास में एक रहस्यमय शख्सियत बने हुए हैं। ब्रिटिश उत्पीड़न के खिलाफ उनका नेतृत्व और प्रतिरोध लोगों को प्रेरित करता रहा है, और उनकी विरासत स्वतंत्रता और न्याय की तलाश में भारतीय लोगों की अदम्य भावना की याद दिलाती है। नाना साहेब के कार्यों और बलिदानों ने उन्हें भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बहादुर और सबसे सम्मानित नायकों में स्थान दिलाया है। उनका नाम भारतीय इतिहास के इतिहास में हमेशा प्रतिरोध और मुक्ति की स्थायी भावना के प्रमाण के रूप में अंकित रहेगा। 

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Nana Saheb Biography

Birthday: May 19 , 1824 ( Taurus )

Born In: Bithoor

Nana Saheb

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Also Known As: Dhondu Pant

Died At Age: 34

father: Baji Rao II

mother: Ganga Bai

siblings: Raghunathrao

children: Baya Bai

Born Country: India

Activists Revolutionaries

Died on: 1859

place of death: Naimisha Forest

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Singh, D.

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नाना साहेब पर निबंध / Essay on Nana Saheb in hindi

नाना साहेब पर निबंध / essay on nana saheb in hindi .

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Table of contents-

1.परिचय 

2. प्रारंभिक जीवन

3.शिक्षा

4.स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

5.अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष

6.1857 के सैनिक विद्रोह में योगदान

7.नाना साहब का गायब होना

8.नाना साहेब की मृत्यु और नेपाल से संबंध

9.उपसंहार 

नमस्कार मित्रों स्वागत है आपका हमारे एक और नये आर्टिकल पर। आज की पोस्ट में हम आपको महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नाना साहेब पर निबंध (Essay on Nana Saheb in hindi) के बारे में विस्तार से जानकारी देंगे एवं इस निबंध से संबंधित सभी महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर पर भी परिचर्चा करेंगे। ये सभी महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर एनसीईआरटी पैटर्न पर आधारित हैं।  तो इस पोस्ट को आप लोग पूरा पढ़िए। अगर पोस्ट अच्छी लगे तो अपने दोस्तों में भी शेयर करिए।

नाना साहेब पर हिंदी में निबंध

परिचय

भारतीय इतिहास में अंग्रेजों के विरुद्ध प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व मराठा योद्धा नाना साहेब पेशवा द्वितीय ने किया था। 1849 में छत्रपति शिवाजी की मृत्यु के बाद, नाना साहब पेशवा द्वितीय मराठा साम्राज्य के सबसे शक्तिशाली शासकों में से एक थे। भारत को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से मुक्त कराने के लिए नाना साहब के नेतृत्व में दस से पंद्रह हजार सैनिकों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध युद्ध में भाग लिया। नाना साहेब भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक महत्वपूर्ण अग्रदूत थे। नाना साहेब पहले स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं में से एक थे जो 1857 में भारत को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए शुरू किया गया था।

प्रारंभिक जीवन

नाना साहेब पेशवा II का जन्म 19 मई, 1824 को बिठूर, वर्तमान उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनका पूरा नाम नाना गोविंदा धोंडू पंत है। नाना साहब के पिता का नाम नारायण भट, बाजीराव द्वितीय (दत्तक पिता) और माता का नाम सरस्वती बाई है। नाना साहब के दो भाई रघुनाथ राव और जनार्दन हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि रघुनाथ राव ने अंग्रेजों के संपर्क में आकर मराठों को धोखा दिया था।

महत्वपूर्ण रूप से, बाजीराव द्वितीय, अंतिम मराठी शासक, निःसंतान थे। इसे देखते हुए, बाजीराव ने नाना साहेब को अपने पुत्र के रूप में अपनाया, जो मराठा सिंहासन के उत्तराधिकारी थे, और अपने दत्तक पिता की ईस्ट इंडिया कंपनी से £80,000 की निरंतर वार्षिक पेंशन के पात्र थे। इसे देखते हुए, बाजीराव द्वितीय ने बिठूर की विरासत को अपने दत्तक पुत्र नाना गोविंदा धोंडू पंत के रूप में घोषित किया।

शिक्षा  

सुशिक्षित नाना गोविंदा धोंडू पंत ने संस्कृत भाषा का व्यापक अध्ययन किया और संस्कृत भाषा पर उनकी अधिक पकड़ थी। नाना साहब, जिन्हें धर्म का गहरा ज्ञान था, एक कुशल मराठा योद्धा के रूप में युद्ध कला में भी निपुण थे। नाना साहब ने बाजीराव द्वितीय की मृत्यु के बाद 20 वर्षों तक बिठूर पर शासन किया।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

तात्या टोपे, अशफाकुल्ला खान, मर्णिकर्णिका तांबे नाना साहब के बचपन के दोस्त थे। उनके साथ नाना साहेब ने बाद में एक मजबूत ब्रिटिश विरोधी लड़ाई की, अजीमुल्ला खान और मणिकर्णिका ताम्बे ने बाद में उन्हें एक मजबूत ब्रिटिश विरोधी युद्ध के लिए प्रेरित किया।

यह याद किया जा सकता है कि 1848 के बाद से, ईस्ट इंडिया कंपनी के वायसराय लॉर्ड डलहौजी ने उन्मूलन नीति लागू की और भारत के राज्य को ब्रिटिश शासन के अधीन लाने पर विशेष जोर दिया। इस नीति के अनुसार यदि अंग्रेजों पर आश्रित कोई भारतीय राजा निःसंतान मर जाता है तो वह राज्य ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन हो जाता है। इसके अलावा यदि कोई निःसंतान राजा किसी बच्चे को उठाना चाहता है तो उसके लिए ईस्ट इंडिया कंपनी की अनुमति लेना आवश्यक है।

लार्ड डलहौजी ने इस नीति का उपयोग संबलपुर, जैनपुर, झांसी और नागपुर राज्यों को मिलाने के लिए किया और इसे अपने राज्य में शामिल कर लिया।  परिणामस्वरूप देशी राजाओं में असंतोष बढ़ने के साथ-साथ जातिवाद, आर्थिक शोषण और सैकड़ों वर्षों से चली आ रही ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आदिवासियों का आक्रोश जमा हो रहा था।  परिणामस्वरूप, मंगल पांडे ने पहली बार 1857 में बंगाल के बैरकपुर आर्मी कैंप में अंग्रेजों के खिलाफ भारत से अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए विद्रोह किया।  धीरे-धीरे विद्रोह पूरे भारत में फैल गया।

अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष

मराठी शासक बाजीराव द्वितीय की मृत्यु 1851 में हुई थी। गौरतलब है कि उस समय ब्रिटिश कंपनी ने मराठी शासक बाजीराव द्वितीय को अस्सी हजार रुपये भत्ता दिया था। उनकी मृत्यु के बाद, नाना साहेब एक दत्तक बच्चे के रूप में मराठी सिंहासन के योग्य उत्तराधिकारी थे, इसके अलावा ईस्ट इंडिया कंपनी से दत्तक पिता की £ 80,000 की वार्षिक पेंशन के पात्र थे। लेकिन बाजीराव द्वितीय की मृत्यु के बाद, ब्रिटिश कंपनी ने पेंशन बंद कर दी और नाना साहब को मराठी उत्तराधिकारी नहीं माना। सारी बात पर नाना साहब भड़क उठे। जिसके लिए नाना साहब ने 1853 में एक अज़ीमुल्ला खान को ब्रिटिश सरकार के पास अपना पक्ष रखने के लिए इंग्लैंड भेजा और ब्रिटिश सरकार से बंद भत्ते और अनुदान वापस करने की अपील की।  लेकिन अजीमुल्ला खान अंग्रेजों को मना नहीं सके और इंग्लैंड से असफल होकर 1855 में लौट आए।  अजीमुल्ला खान के इंग्लैंड से लौटने के बाद नाना साहब ने घोषणा की कि भारत से ब्रिटिश सत्ता को नष्ट कर दिया जाना चाहिए।

यह याद किया जा सकता है कि नाना साहब ने 5 जून, 1857 को इलाहाबाद में जनरल व्हीलर को एक पत्र भेजा था, जिसमें उन्हें अगली सुबह लगभग 10 बजे हमले की उम्मीद करने की सूचना दी थी, और 6 जून को, नाना साहब ने अंग्रेजों पर एक आश्चर्यजनक हमला किया। लगभग 10:30 बजे। कंपनी की सेनाएँ हमले के लिए पर्याप्त रूप से तैयार नहीं थीं, लेकिन वे खुद को हराने में कामयाब रहीं क्योंकि हमलावर सेनाएँ खाई में प्रवेश करने के लिए अनिच्छुक थीं। परिणामस्वरूप, ब्रिटिश सैनिक पीछे हट गए और कंपनी के किलों में शरण ली। वहां, ब्रिटिश सैनिकों को भूखा रहना पड़ा, सूर्य के निकट संपर्क में रहना पड़ा और मरना पड़ा।  इसके बाद 10 जून तक और विद्रोही सैनिक नाना साहेब के साथ शामिल हो गए। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने लगभग दस से बारह हजार सैनिकों को जुटाकर अंग्रेजों के खिलाफ नेतृत्व किया था। गौरतलब है कि 23 जून को नाना साहब ने फिर से बड़ी संख्या में सेना लेकर जनरल व्हीलर पर आक्रमण कर दिया। हमले में जनरल व्हीलर के बेटे वामपंथी गॉर्डन व्हीलर की मौत हो गई थी। इसके बाद, द जनरल व्हीलर ने आत्मसमर्पण करने और इलाहाबाद छोड़ने का फैसला किया।

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1857 के सैनिक विद्रोह में योगदान

इसके बाद नाना साहब ने और अधिक सत्ता हासिल करने के लिए नेपाली प्रधानमंत्री जंग बहादुर राणा की शरण ली। नाना साहेब पेशवा द्वितीय ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ सिपाही विद्रोह के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी।

नाना साहब का गायब होना

ब्रिटिश कंपनी के कानपुर पर अधिकार करने के बाद नाना साहब लापता हो गए। लेकिन नवंबर 1857 में नाना साहब ने तात्या टोपे के साथ मिलकर कानपुर पर फिर से कब्जा करने की कोशिश की। वह कानपुर के पश्चिम और उत्तर-पश्चिम के सभी मार्गों को नियंत्रित करने में सफल रहे, लेकिन बाद में कानपुर की दूसरी लड़ाई में हार गए।

 गौरतलब है कि सितंबर 1857 में नाना साहब के मलेरिया बुखार से पीड़ित होने की सूचना मिली थी, हालांकि यह संदेहास्पद है। रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे और राव साहब ने जून 1858 में ग्वालियर में नाना साहब को अपना पेशवा घोषित किया।

  नाना साहेब की मृत्यु और नेपाल से संबंध

 महत्वपूर्ण बात यह है कि नाना साहब काफी समय से नेपाल में छिपे हुए थे। 1859 तक, नाना के नेपाल भाग जाने की सूचना मिली थी। पेरसेवल लैंडन ने दर्ज किया कि नाना साहब ने अपनी पत्नी के साथ नेपाली प्रधान मंत्री जंग बहादुर राणा के संरक्षण में, पश्चिमी नेपाल में थापा तेली, रीरीथांग के पास सुरक्षित रूप से अपने दिन बिताए। कीमती रत्नों के बदले पूर्वी नेपाल के धनगारा में उनके परिवार को भी सुरक्षा मिली। फरवरी 1860 में, अंग्रेजों को सूचित किया गया कि नाना की पत्नी ने नेपाल में शरण ली थी, जहाँ वे थापथली के पास एक घर में रहते थे। नाना के स्वयं नेपाल के भीतरी भाग में रहने की सूचना मिली थी।

  उपसंहार  

 भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में नाना साहब का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। नाना साहब पेशवा द्वितीय अंग्रेजों के खिलाफ शुरू हुए पहले स्वतंत्रता संग्राम के सबसे मजबूत सेनानियों में से एक थे। 1857 के सिपाही विद्रोह के दौरान नाना साहब का साहस हमेशा प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा, जिसने भारतीय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी थी।  एक शब्द में नाना साहेब देशभक्ति और राष्ट्रीय गौरव का एक शानदार उदाहरण हैं। वह पूरे देश के लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। उनका नाम भारत के इतिहास में हमेशा स्वर्ण अक्षरों में अंकित रहेगा और हर भारतीय के दिलों में जिंदा रहेगा।

  1. नाना साहब का वास्तविक नाम क्या है?

उत्तर: नाना साहेब का असली नाम नाना गोविंदा धेनु पंथ है।

  2. नाना साहब का जन्म कब और कहाँ हुआ था?

उत्तर: नाना साहब का जन्म 19 मई, 1824 को उत्तर प्रदेश के बिठूर में हुआ था।

  3. नाना साहब के माता-पिता का क्या नाम था ?

उत्तर: नाना साहेब के पिता का नाम नारायण भट्ट बाजीराव द्वितीय (दत्तक पिता) और माता का नाम सरस्वती बाई है।

  4. नाना साहब को बिठूर की विरासत किसने घोषित की ?

उत्तर: अंतिम मराठी शासक बाजीराव द्वितीय निःसंतान थे।  इसे देखते हुए, बाजीराव ने बिठूर की विरासत को अपने दत्तक पुत्र नाना गोविंदा धोंडू पंत के रूप में घोषित किया।

  5. अंग्रेजों ने नाना साहब को मराठी उत्तराधिकारी क्यों नहीं माना?

उत्तर: नाना साहब मराठी शासक बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र हैं। अंग्रेजों द्वारा शुरू किए गए अधिकारों के उन्मूलन के अनुसार, गोद ली गई संतान किसी भी अधिकार का आनंद नहीं ले सकती।

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